बाबू जगदेव प्रसाद (2 फरवरी 1922 से 5 सितम्बर 1974) जयंती विशेष : रूस के महान मजदूरों के नेता लेनिन जो पूरे विश्व में प्रसिद्ध है, उनके बारे में तो आपने बहुत सुना होगा। लेकिन क्या आप भारत के लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद के बारे में जानते है जिन्होंने भारत के शोषित वर्ग के खातिर अपनी जान न्योछावर कर दी। जिनके विचारो का आज भी लोहा माना जाता है। भारत के लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद कहते थे कि हमारी लड़ाई दीर्घकालिक लड़ाई है। “पहली पीड़ी के लोग मारे जाएंगे, दूसरी पीड़ी के लोग जेल जायेंगे, तीसरी पीड़ी के लोग राज करेंगे।” उत्तर भारत में ‘शोषितों की क्रान्ति’ के जनक, अर्जक संस्कृति और साहित्य के पैरोकार, शोषित समाज दल तथा सर्वहारा के महान नायक भारतीय लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद एक ऐसी नीव डाल गये हैं, जिस पर रूस के बोल्शेविकों की भांति इस देश की गैर-सवर्ण जनता लगातार सामाजिक-आर्थिक-राजनीति और सांस्कृतिक उन्नति के पथ पर अग्रसर है।
महात्मा ज्योतिबा फूले, पेरियार रामासामी नायकर, डा. अंबेडकर और मानवतावादी महामना रामस्वरूप वर्मा के विचारों को कार्यरूप देने वाले बाबू जगदेव प्रसाद का जन्म 2 फरवरी 1922 को महात्मा बुद्ध की ज्ञान-स्थली बोध गया के समीप कुर्था प्रखंड के कुरहारी ग्राम में निर्धन परिवार में हुआ था। इनके पिता प्रयाग नारायण कुशवाहा पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे तथा माता रासकली अनपढ़ थी। अपने पिता के मार्गदर्शन में बालक जगदेव ने मिडिल की परीक्षा पास की। उनकी इच्छा उच्च शिक्षा ग्रहण करने की थी, वे हाईस्कूल के लिए जहानाबाद चले गए। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा होने के कारण बाबू जगदेव प्रसाद की प्रवृत्ति शुरू से ही संघर्षशील तथा जुझारू रही, वे बचपन से ही ‘विद्रोही स्वाभाव’ के थे। जगदेव प्रसाद जब किशोरावस्था में अच्छे कपडे पहनकर स्कूल जाते तो उच्चवर्ण के छात्र उनका उपहास उड़ाते थे उनके साथ स्कूल में बदसूलकी भी हुई। एक दिन गुस्से में आकर उन्होंने उनकी पिटाई कर दी और उनकी आँखों में धूल डाल दी, इसके लिए उनके पिता को जुर्माना भरना पड़ा और माफ़ी भी मांगनी पडी। एक दिन बिना किसी गलती के एक शिक्षक ने जगदेव बाबू को चांटा जड़ दिया, कुछ दिनों बाद वही शिक्षक कक्षा में पढ़ाते-पढाते खर्राटे भरने लगे, जगदेव जी ने उसके गाल पर एक जोरदार चांटा मारा । शिक्षक ने प्रधानाचार्य से शिकायत की। जगदेव बाबू ने निडर भाव से कहा, ‘गलती के लिए सबको बराबर सजा मिलनी चाहिए, चाहे वो छात्र हो या शिक्षक’। किशोर जगदेव प्रसाद ने पंचकठिया प्रथा का अंत करवाया। उस इलाके में किसानों की जमीन की फसल का पांच कट्ठा जमींदारों के हाथियों को चारा देने की एक प्रथा सी बन गयी थी। गरीब तथा शोषित वर्ग का किसान जमीदार की इस जबरदस्ती का विरोध नहीं कर पाता था। जगदेव बाबू ने इसका विरोध करने को ठाना। जगदेव बाबू ने अपने हमजोली साथियों से मिलकर रणनीति बनायी। जब महावत हाथी को लेकर फसल चराने आया तो पहले उसे मना किया गया, जब महावत नहीं माना तब जगदेव बाबू ने अपने साथियों के साथ महावत की पिटाई कर दी और आगे से न आने की चेतावनी भी दी। इस घटना के बाद पंचकठिया प्रथा बंद हो गयी।
जब वे शिक्षा हेतु घर से बाहर रह रहे थे, उनके पिता अस्वस्थ रहने लगे। जगदेव बाबू की माँ धार्मिक स्वाभाव की थी, अपने पति की सेहत के लिए उन्होंने देवी-देवताओं की खूब पूजा, अर्चना की तथा मन्नते मांगी, इन सबके बावजूद उनके पिता का देहावसान हो गया। यहीं से जगदेव बाबू के मन में हिन्दू धर्म के प्रति विद्रोही भावना पैदा हो गयी, उन्होंने घर के सारे देवी-देवताओं की मूर्तियों, तस्वीरों को उठाकर पिता की अर्थी पर डाल दिया। इस ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म से जो विक्षोभ उत्पन्न हुआ वो अंत समय तक रहा, उन्होंने ब्राह्मणवाद का प्रतिकार मानववाद के सिद्धांत के जरिये किया।
जगदेव बाबू ने तमाम घरेलू झंझावतों के बीच उच्च शिक्षा हासिल की। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक तथा परास्नातक उत्तीर्ण हुए। वही उनका परिचय चंद्रदेव प्रसाद वर्मा से हुआ, चंद्रदेव वर्मा ने जगदेव बाबू को विभिन्न विचारको को पढ़ने, जानने-सुनने के लिए प्रेरित किया, अब जगदेव बाबू ने सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया और राजनीति की तरफ प्रेरित हुए। अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री लेने के बाद उनका रूझान पत्रकारिता की ओर हुआ। वे पत्र -पत्रिकाओं में लेखन का कार्य करने लगे। सामाजिक न्याय के आवाज उठाने वाले लेखों के कारण इन्हें काफी समस्या हुई। इसी बीच वे समाजवादी नेता उपेन्द्र नाथ के संपर्क में आये और वे ‘सोशलिस्ट पार्टी’ से जुड़ गए तथा पार्टी के मुखपत्र ‘जनता’ का संपादन भी किया। एक संजीदा पत्रकार की हैसियत से उन्होंने दलित-पिछड़ों-शोषितों की समस्याओं के बारे में खूब लिखा तथा उनके समाधान के बारे में अपनी कलम चलायी। 1955 में उन्हें हैदराबाद भेज दिया गया वहां जाकर उन्होंने पार्टी के मुखपत्र के अंग्रेजी साप्ताहिक ‘सिटीजन’ तथा हिन्दी साप्ताहिक ‘उदय’ का संपादन आरभ किया। उनके क्रांतिकारी तथा ओजस्वी विचारों से पत्र-पत्रिकाओं का सर्कुलेशन लाखों की संख्या में पहुँच गया। उन्हें धमकियों का भी सामना करना पड़ा, प्रकाशक से भी मन-मुटाव हुआ, लेकिन जगदेव बाबू ने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। वे संपादक पद से त्यागपत्र देकर पटना वापस लौट आये। पटना आकर जगदेव प्रसाद समाजवादियों के साथ आन्दोलन में शामिल हो गये।
बिहार में उस समय समाजवादी आन्दोलन की बयार थी, लेकिन जे. पी. तथा लोहिया के बीच सैद्धांतिक मतभेद था। जब जे. पी. ने राम मनोहर लोहिया का साथ छोड़ दिया तब बिहार में जगदेव बाबू ने लोहिया का साथ दिया, उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत किया और समाजवादी विचारधारा का देशीकरण करके इसको घर-घर पहुंचा दिया। जे. पी. मुख्यधारा की राजनीति से हटकर विनोबा भावे द्वारा संचालित भूदान आन्दोलन में शामिल हो गए। जे. पी. नाखून कटाकर क्रांतिकारी बने, वे हमेशा अगड़ी जातियों के समाजवादियों के हित-साधक रहे। भूदान आन्दोलन में जमींदारों का ह्रदय परिवर्तन कराकर जो जमीन प्राप्त की गयी वह पूर्णतया उसर और बंजर थी, उसे गरीब-गुरुबों में बाँट दिया गया था, लोगो ने खून-पसीना एक करके उसे खेती लायक बनाया। लोगों में खुशी का संचार हुआ लेकिन भू-सामंतो ने जमीन ‘हड़प नीति’ शुरू की और दलित-पिछड़ों की खूब मार-काट की गयी, अर्थात भूदान आन्दोलन से गरीबों का कोई भला नहीं हुआ उनका श्रम शोषण जमकर हुआ और समाज में समरसता की जगह अलगाववाद का दौर शुरू हुआ। कर्पूरी ठाकुर ने विनोबा भावे की खुलकर आलोचना की और उनको ‘हवाई महात्मा’ कहा।
1957 में उन्हें सोशलिस्ट पार्टी से विक्रमगंज लोकसभा का उम्मीदवार बनाया गया मगर वे चुनाव हार गए। 1962 में बिहार विधानसभा का चुनाव कुर्था से लड़े पर विजयश्री नहीं मिल सकी। जगदेव बाबू ने 1967 के विधानसभा चुनाव में संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, 1966 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी का एकीकरण हुआ था) के उम्मीदवार के रूप में कुर्था में जोरदार जीत दर्ज की। उनके अथक प्रयासों से स्वतंत्र बिहार के इतिहास में पहली बार संविद सरकार बनी तथा महामाया प्रसाद सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाया गया। जगदेव बाबू तथा कर्पूरी ठाकुर की सूझ-बूझ से पहली गैर-कांग्रेस सरकार का गठन हुआ। लेकिन यहाँ भी मुख्यमंत्री के चयन में भारी तमाशा हुआ। यहां गैर कांग्रेसी संयुक्त विधायक दल (संविद) में संसोपा सबसे बड़ी पार्टी थी जिसके 68 विधायक थे, दूसरी सोशलिस्ट पार्टी प्रसोपा के 17 सदस्य थे। इसके अलावा छोटानागपुर इलाके के एक बड़े जमींदार राजा रामगढ कहे जाने वाले कामाख्या नारायण सिंह की जेबी पार्टी जनक्रांति दल के भी 27 विधायक थे। जन क्रांति दल विधायक दल के नेता कामाख्या नारायण सिंह और उपनेता महामाया प्रसाद सिन्हा थे। संसोपा विधायक दल के नेता कर्पूरी ठाकुर थे। कायदे से कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री होना चाहिए था लेकिन यह नहीं हुआ। कहा जाता है कि इस बात पर कुछ सवर्ण नेता अंदरखाने में सहमत हो गए कि किसी भी कीमत पर कर्पूरी ठाकुर को सीएम नहीं होने देना है और तर्क दिया गया कि मुख्यमंत्री को हराने वाला मुख्यमंत्री बनेगा। पटना शहरी क्षेत्र से मुख्यमंत्री केबी सहाय को जनक्रांति दल उम्मीदवार के रूप में महामाया प्रसाद ने हराया था। लेकिन सच्चाई यह भी थी कि केबी सहाय दो चुनाव क्षेत्रों से चनाव लड़े थे। दूसरी जगह हज़ारीबाग था, जहाँ से उन्हें जनक्रांति दल के ही एक पिछड़ी जाति से आने वाले रघुनन्दन प्रसाद ने हराया था लेकिन उनकी कोई पूछ नहीं हुई, उन्हे मंत्री भी नहीं बनाया गया। मतलब यह था कि संविद सरकार की बुनियाद ही गलत थी। पाखंड का हाल यह था की सबसे बड़े विधायक दल का नेता उपमुख्यमंत्री था और एक बहुत छोटे दल का उपनेता मुख्यमंत्री। सरकार ने तैंतीस सूत्री कार्यक्रम बनाये। इसमें भूमि सुधार के भी बिंदु थे और उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्ज़ा देना था। इन दोनों कार्यक्रमों का संविद सरकार में शामिल जनसंघियों ने विरोध किया । भूमि सुधार पर कम्युनिस्टों का जोर था। संसोपा -प्रसोपा के लोगों को भी जोर देना चाहिए था, लेकिन वे तटस्थ रहे। जब ये प्रोग्राम शिथिल हुए, तब केवल राजपाट ही मुख्य ध्येय रह गया। दस महीने बाद ही कोलाहल शुरू हो गया और फरवरी 1968 में संविद सरकार गिर गयी। संसोपा का एक धड़ा अलग होकर शोषित दल बन गया, इसमें एकाध अपवाद छोड़कर सभी पिछड़ी जातियों के विधायक थे।
यह उस पाखंड की प्रतिक्रिया थी, जो मुख्यमंत्री बनाने में हुई थी। लेकिन पाखंड का विस्थापन पाखंड से ही हुआ। कांग्रेस ने शोषित दल को सरकार बनाने में समर्थन दिया तब कांग्रेस के 128 विधायक थे। पहली बार बिहार में बिंध्येश्वरी प्रसाद मंडल, एक जमींदार, लेकिन पिछड़ा वर्ग के मुख्यमंत्रित्व में सरकार बनी। गौरतलब है कि महामाया प्रसाद सिन्हा और बी पी मंडल दोनों कांग्रेसी पृष्ठभूमि के थे ( बाद में मंडल फिर कांग्रेस में चले गए और दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बने)।
लेकिन पार्टी की नीतियों तथा विचारधारा के मसले पर लोहिया से अनबन हुई क्योंकि लोहिया ने नारा दिया था कि “ससोपा ने बाँधी गांठ पिछड़े 100 मे पावें साँठ।” इससे पिछड़े वर्ग के लोग लोहिया की ओर आकर्षित हुये लेकिन जब टिकट देने की बात आई तो उन्होने सवर्ण महिलाओं को भी पिछड़े वर्ग के कोटे से टिकट दे दिया। इस पर बाबू जगदेव ने विरोध किया और कोई समाधान न होने पर ‘कमाए धोती वाला और खाए टोपी वाला‘ की स्थिति देखकर संसोपा छोड़कर 25 अगस्त 1967 को ‘शोषित दल’ नाम से नयी पार्टी बनाई। इसकी स्थापना के समय उन्होंनें कहा था “जिस लड़ाई की बुनियाद आज मैं डाल रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी। चूंकि मैं एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं। इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे। जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी ।”
जगदेव बाबू जमीन से जुड़े नेता थे। उन्होंने बड़े नजदीक से देखा था बहुजन समाज की उन बहन बेटियों को जो चिलचिलाती धूप व वर्षा में पेट की खातिर जमीदारों, सामंतो के खेतों में काम करती थी। उन्हें पेट भरने के लिए अनाज सामंत, भूमिहार नहीं देते थे। जो जगदेव बाबू को बर्दाश्त नहीं था। उन्होंने उचित मजदूरी के लिए आंदोलन छेड़ दिया और नारा दिया-
अबकी सावन भादों में
गोरी-गोरी चूड़ियां भादो में….
अर्थात इस बार सावन भादों के महीने में महलों में रहने वाली गोरी गोरी कलाइयों में चूड़ियां खनकाने वाली उच्च वर्णों की बहन-बेटियां खेतों में धान के पौधे लगाएगी। उनके हाथ कीचड़ में होंगे। बहुजन समाज की महिलाओं ने काम बंद कर दिया। बिहार में उच्चवर्णों में खलबली मच गई । इस बहुजन जनता उनकी जयकार करने लगी तो उन्होंने बहुजनों को संबोधित करते हुए कहा-
“शोषित-पीड़ित की इज्जत और रोटी की लड़ाई में शरीक होने वाले इस जंग ए मैदान में आए मेरे प्यारे बहादुर वफादार साथियों-आप मेरी जय-जयकार कर रहे हैं, पर जय अभी हुई कहाँ। शासन प्रशासन में, राजपाट में हर जगह वर्चस्व व अधिकार जमाए हुए सामंत और ब्राह्मणवादी व्यवस्था, आपके द्वारा मनाई गई जय-जयकार की इस आवाज पर हँस रही है। शोषित, पीड़ितों की ललकार के अनुसार क्या हमने धरती और राजपाट में में 90% हक प्राप्त कर लिया है? क्या जनता में व्याप्त राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, गैर-बराबरी का खात्मा हमने कर दिया, जिसका हमने बीड़ा उठाया था। नहीं तो फिर इस जय-जयकार सुनने के अधिकारी हम कैसे?” जगदेव बाबू का समाज जीवन स्वार्थ पर नहीं यथार्थ पर आधारित था। वे जय-जय कार के प्रबल विरोधी थे।
मार्च 1970 में जब जगदेव बाबू के दल के समर्थन से दरोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने, उन्होंने 2 अप्रैल 1970 को बिहार विधानसभा में ऐतिहासिक भाषण दिया- “मैंने कम्युनिस्ट पार्टी, संसोपा, प्रसोपा जो कम्युनिस्ट तथा समाजवाद की पार्टी है, के नेताओं के भाषण भी सुने हैं, जो भाषण इन इन दलों के नेताओं ने दिए है, उनसे साफ हो जाता है कि अब ये पार्टियाँ किसी काम की नहीं रह गयी हैं, इनसे कोई ऐतिहासिक परिवर्तन तथा सामाजिक क्रांति की उम्मीद करना बेवकूफी होगी। इन पार्टियों में साहस नहीं है कि सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी जो असली कारण है उनको साफ शब्दों में मजबूती से कहें। कांग्रेस, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी ये सब द्विजवादी पूंजीवादी व्यवस्था और संस्कृति के पोषक है। मेरे ख्याल से यह सरकार और सभी राजनीतिक पार्टियाँ द्विज नियंत्रित होने के कारण राज्यपाल की तरह दिशाहीन हो चुकी है। मुझको कम्युनिज्म और समाजवाद की पार्टियों से भारी निराशा हुयी है। इनका नेतृत्व दिनकट्टू नेतृत्व हो गया है।” उन्होंने आगे कहा- “सामाजिक न्याय, स्वच्छ तथा निष्पक्ष प्रशासन के लिए सरकारी, अर्धसरकारी और गैरसरकारी नौकरियों में कम से कम 90 सैकड़ा जगह शोषितों के लिए आरक्षित कर दिया जाये।”
शासक जातियों ने जब देखा की उच्च शिक्षा प्राप्त जगदेव प्रसाद ब्राह्मणी व्यवस्था के खिलाफ जंग ए मैदान में कूद पड़ा है और मूलनिवासी बहुजन समाज कहीं उसका हमराही बनकर ब्राह्मणी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने में मददगार न बन जाए इससे पहले ही शासक जातियो ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। लेकिन जगदेव बाबू ने कहा- “मेरे बाप-दादों से ऊँची जाति वालों ने हलवाही करवाई है। मैं उनकी राजनैतिक हलवाही करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूँ । यह मुझे कतई स्वीकार नहीं है और न शोषितों को स्वीकार करने के लिए कहूंगा। मैं तमाम काले-कलूटे लोगों को निश्चित नीति के तहत संगठित करूंगा और दिल्ली की गद्दी पर ऐसे ही लोगों को बैठाऊंगा। जिस प्रकार कुत्ता कभी मांस की रखवाली नहीं कर सकता उसी प्रकार देश के सामंत, ऊंची जाति एवं पूंजीपति वर्ग शोषितों, वंचितों और अछूतों का हक हिस्सा नहीं दे सकते। इसलिए उनके नेतृत्व की जगह दबे कुचले शोषितों का नेतृत्व विकसित करना है। तभी जमीन और दौलत का उचित बँटवारा और नौकरशाही का खात्मा संभव है। भारत में जब तक सामाजिक क्रांति नहीं होगी तब तक आर्थिक क्रांति हो ही नहीं सकती। इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करते, वे अव्वल दर्जे के फरेबी और मक्कार हैं।”
वे डॉ. अंबेडकर के उस उदगार से अधिक प्रकाशित थे, जिसमें उन्होंने 24.9.1944 को मद्रास के पार्क टाउन मैदान में बहुजन को संबोधित करते हुए कहा था- “आप लोगों को यह एहसास करना चाहिए कि हमारा मकसद क्या है? हमारा उद्देश्य और आकांक्षा है, एक शासक जमात बनने की। आप सबको अपने दिमाग में यह बात रखनी होगी और सब लोगों को अपने घरों की दीवारों पर यह लिख लेना चाहिए, ताकि हर रोज आपको स्मरण होता रहे कि हमारे दिल में क्या आकांक्षा है। यह एक बहुत बड़ा उद्देश्य है जिसे हमने अपने ह्रदय में मुश्किल से पाल पाया है। हमें देखना होगा कि हम एक शासक कर्ता जमात के रूप में मान्य हो सकें। अगर आप यह एहसास करेंगे तो आप लोगों को मानना होगा कि इस मकसद को अमल में लाने के लिए हमें अनेक भारी प्रयासों की जरूरत होगी।
बिहार में राजनीति को जनवादी बनाने के लिए उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता महसूस की। वे मानववादी रामस्वरूप वर्मा द्वारा स्थापित ‘अर्जक संघ’ (स्थापना 1 जून, 1968) में शामिल हुए। जगदेव बाबू ने कहा था कि अर्जक संघ के सिद्धांतो के द्वारा ही ब्राह्मणवाद को ख़त्म किया जा सकता है और सांस्कृतिक परिवर्तन कर मानववाद स्थापित किया जा सकता है। उन्होंने आचार, विचार, व्यवहार और संस्कार को अर्जक विधि से मनाने पर बल दिया । उस समय ये नारा गली-गली गूंजता था-
मानववाद की क्या पहचान- ब्रह्मण भंगी एक सामान, पुनर्जन्म और भाग्यवाद- इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद।
7 अगस्त 1972 को शोषित दल तथा रामस्वरूप वर्मा की पार्टी ‘समाज दल’ का एकीकरण हुआ और ‘शोषित समाज दल’ नामक नयी पार्टी का गठन किया गया। एक दार्शनिक तथा एक क्रांतिकारी के संगम से पार्टी में नयी उर्जा का संचार हुआ। जगदेव बाबू ने पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में जगह-जगह तूफानी दौरा आरम्भ किया। वे नए-नए तथा जनवादी नारे गढ़ने में निपुण थे। सभाओं में जगदेव बाबू के भाषण बहुत ही प्रभावशाली होते थे, जहानाबाद की सभा में उन्होंने कहा था-
दस का शासन नब्बे पर,
नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।
सौ में नब्बे शोषित है,
नब्बे भाग हमारा है।
धन-धरती और राजपाट में,
नब्बे भाग हमारा है।
जगदेव बाबू के इस नारे से बहुजन समाज दोस्त-दुश्मन की पहचान करने लगा। फलत: जगदेव बाबू को जान से मारने की धमकी आने लगी किंतु जगदेव बाबू विचलित नहीं हुए। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, ”उन मूर्खों को सोचना चाहिए सिंह तो सिंह ही कहलाएगा चाहे वह पिंजड़े में हो या बाहर। चाहे वह जीवित हो या मृत। वीर कभी खाट पर नहीं मरते। उनकी मौत गोली और तलवार से होती है। मौत शूरमाओं की दुलहन है जिसे गले लगाने को वे बेताब रहते हैं ।”
जगदेव बाबू ने अपने भाषणों से शोषित समाज में नवचेतना का संचार किया, उन्होंने राजनीतिक विचारक टी. एच. ग्रीन के इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया कि चेतना से स्वतंत्रता का उदय होता है, स्वतंत्रता मिलने पर अधिकार की मांग उठती है और राज्य को मजबूर किया जाता है कि वे उचित अधिकारों को प्रदान करे। जगदेव बाबू वर्तमान शिक्षा प्रणाली को विषमतामूलक, ब्राह्मणवादी विचारों का पोषक तथा अनुत्पादक मानते थे। वे समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के पक्ष में थे। एक सामान तथा अनिवार्य शिक्षा के पैरोकार थे तथा शिक्षा को केन्द्रीय सूची का विषय बनाने के पक्षधर थे। वे कहते थे-
चपरासी हो या राष्ट्रपति की संतान,
सभी की शिक्षा हो एक समान.
प्रेमकुमार मणि ने स्पष्ट किया है कि सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में किसान आन्दोलन और इसी के समानांतर पिछड़े किसानों का त्रिवेणी संघ आन्दोलन वर्ग और जातियों में विभाजित जनता का स्वतंत्रता आन्दोलन और उसके बाद भूदान, समाजवादी, साम्यवादी आन्दोलन भयानक अंतर्विरोधों से भरा था। जगदेव प्रसाद ने जिस शोषित समाज दल की स्थापना की उसकी विचारधारा और आवेग को आज कई राजनीतिक दलों ने आत्मसात किया है। आज राजनीति में पिछड़ावाद की धूम मची है। लेकिन विचारधारा के स्तर पर इसके तमाम नेता खाली हैं। लगभग सभी किसी न किसी काली, नीली, पीली, नौरंगी, शीतला, पत्थर, टीला, बंदर, भालू आदि की मूर्तियों के सामने माथा पटककर अपनी मनौती पूरी कर रहे हैं।
उनके नारों से लोगो में एक नया ही जोश उत्पन्न होता था। एक जन नेता होने की वजह से बाबू जगदेव की जनसभाओं में लोगो का हुजूम उमड़ पड़ता था। बिहार की जनता अब इन्हें ‘बिहार के लेनिन’ के नाम से बुलाने लगी। इसी समय बिहार में कांग्रेस की तानाशाही सरकार के खिलाफ जे. पी. के नेतृत्व में विशाल छात्र आन्दोलन शुरू हुआ और राजनीति की एक नयी दिशा-दशा का सूत्रपात हुआ, लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व प्रभुवर्ग के अंग्रेजीदा लोगों के हाथ में था, जगदेव बाबू ने छात्र आन्दोलन के इस स्वरुप को स्वीकृति नहीं दी। इससे दो कदम आगे बढ़कर वे इसे जन-आन्दोलन का रूप देने के लिए मई 1974 को 6 सूत्री मांगो (उनके अंतिम 6 सूत्री मांगों में दो मांगें यह भी थी कि बिहार के सभी पुस्तकालयों में और सभी दलित छात्रवासों में डॉ आंबेडकर की पुस्तकों को उपलब्ध कराया जाय। सभी मतदाताओं को फोटोयुक्त मतदाता पहचान पात्र उपलब्ध कराया जाय।) को लेकर पूरे बिहार में जन सभाएं की तथा सरकार पर भी दबाव डाला, लेकिन भ्रष्ट प्रशासन तथा ब्राह्मणवादी सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा, जिससे 5 सितम्बर 1974 से राज्य-व्यापी सत्याग्रह शुरू करने की योजना बनी। खुले मंच से शोषकों को ललकारने वाले ये महान शख्सियत सामन्ती ताकतों के आँखों की किरकिरी बन चुके थे, इनके संघर्षो की पृष्ठभूमि में इनके खिलाफ सवर्ण सामंतों का षड़यंत्र होने लगा। उन्हें लग रहा था कि यदि जगदेव प्रसाद की हत्या नहीं की गयी तो हमारा जीना मुहाल हो जायेगा, इस षडयंत्र के तहत 05 सितम्बर को कुर्था सत्याग्रह के दौरान उनकी हत्या की रची गई साजिश को अंजाम दिया गया। एक जाति विशेष के अफसरों की वहां तैनाती की गयी और सत्याग्रह में उपद्रव मचाने के लिए सवर्णों के कुछ गुंडे भेजे गए। 5 सितम्बर 1974 को जगदेव बाबू हजारों की संख्या में शोषित समाज का नेतृत्व करते हुए अपने दल का काला झंडा लेकर आगे बढ़ने लगे। सवर्णों के भेजे गुंडों ने सत्याग्रह के दौरान पुलिस पर रोड़ेबाजी किये, इसी का बहाना बनाकर कुर्था में तैनात डी.एस.पी. ने सत्याग्रहियों को रोका तो जगदेव बाबू ने इसका प्रतिवाद किया और विरोधियों के पूर्वनियोजित जाल में फंस गए वे सत्याग्हियो को शान्त करने के लिए वरामदे से बाहर आए। पुलिस प्रशासन के मौके पर मौजूद अधिकारी ने उन्हें गोली मारने का आदेश दिया। समय अपराह्न साढ़े तीन बज रहा था. 27 राउंड गोली फायरिंग की गयी जिसमे एक गोली बारह वर्षीय छात्र लक्ष्मण चौधरी को लगी तथा दूसरी गोली बिहार लेनिन के गर्दन को बेधती हुई निकल गयी। सत्याग्रहियों में भगदड़ मच गयी, पुलिस ने धरनार्थियों पर लाठी चार्ज किया और इधर गोली लगने से घायल पड़े जगदेव प्रसाद को तुरंत उनके साथियों ने उन्हें उठाकर जीप पर रख कर ले जाने का प्रयास किया लेकिन क्रूर पुलिस घायलावस्था में उन्हें पुलिस स्टेशन ले गयी। वहां उन्होंने पानी मांगा तो थाने के सामने रहने वाली छोटन रजक की माँ पानी लेकर जगदेव बाबू को पिलाने ले गयी। परन्तु वहां पर खड़े राइफलधारियों ने उस दलित स्त्री से पानी छीन कर फेंक दिया, पानी देने के बदले पुलिस उनकी छाती पर चढ़कर उनकी छाती को बंदूकों की बटों से बराबर पीटते रहे और पानी मांगने पर उनके मुंह पर पेशाब किया। आज तक शायद ही किसी राजनेता के साथ आजाद भारत में इतना अमानवीय कृत्य किया गया होगा । अंततः वे ‘जय शोषित, जय भारत’ कहकर अपनी सांस थाने में ही ली। पूरे गया जिले में कर्फ्यू लागू कर दिया गया और पुलिस प्रशासन ने उनके मृत शरीर को गायब करने की साजिश की और अरवल-औरंगाबाद होते हुए डाल्टनगंज के जंगलों में इनकी लाश फेंकने के लिए ले जायी गयी, साढ़े सात बजे संध्या को रेडियो से प्रसारण होने वाले समाचार में इस खबर को छिपा लिया गया। परन्तु बी बी सी लन्दन ने पौने आठ बजे संध्या के समाचार में घोषणा किया कि बिहार लेनिन जगदेव प्रसाद की हत्या शांतिपूर्ण सत्याग्रह के दौरान कुर्था में पुलिस ने गोली मारकर कर दी। बी पी मंडल, राम लखन सिंह यादव, भोला प्रसाद सिंह और दरोगा प्रसाद राय ने बिहार के मुख्य मंत्री अब्दुल गफूर से मिलकर दवाब डाला कि जगदेव बाबू की लाश पटना में शीघ्र पहुंचायी जाए अन्यथा बिहार जल जाएगा, इस दवाब ने काम किया और जगदेव बाबू के शव को 6 सितम्बर को पटना लाया गया, उनके अंतिम शवयात्रा में देश के कोने-कोने से लाखों-लाखों लोग पहुंचे।
उसी दिन शाम को पटना के गांधी मैदान में विशाल शोक सभा शोषित समाज दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष राम स्वरूप वर्मा, पूर्व वित्त मंत्री, उत्तर प्रदेश सरकार की अध्यक्षता में हुई जिसको लोकनायक जय प्रकाश नारायण, अर्जुन सिंह भदौरिया, सरला भदौरिया, कर्पूरी ठाकुर, महामाया प्रसाद सिन्हा आदि ने संबोधित किया। जगदेव बाबू से सवर्ण समाज की घृणा अगले दिन जाहिर हुई जब ब्राह्मणवादी अखबार ‘आर्यावर्त’ ने समाचार छापा कि ‘स्वयंभू बिहार लेनिन मारे गए’ ऊंची जातियों के कई गांवों में उनके हत्या पर खुशी मनाई गयी, घी के दीये जलाये गए तथा मिठाईयां बांटी गयी’। आज़ाद भारत में इस तरीके से भारत के लेनिन व भारत के महान शोषितो के नेता जगदेव प्रसाद की हस्ती को मिटा दिया गया। देश में आज इनको भारत का लेनिन इसी वजह से कहा जाता है जिन्होंने आज़ाद भारत में शोषितो के हक़ के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। शोषितों के आवाज के रूप में उभरे इस महामानव को श्रधांजलि देने के लिए इनके जन्मदिन पर हर साल कुर्था में मेले का आयोजन किया जाता है जिसमे पाखंड और आडम्बरों के खिलाफ लोगों को जागृत किया जाता है।
जगदेव प्रसाद के संघर्षों के आलोक में अगर वर्तमान भारतीय समाज की कोढ़ बन चुकी समस्याओं का अवलोकन करें तो पाते हैं कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से किसान एवं आदिवासी सर्वाधिक शोषित हैं। ऐसे मामलों में शिक्षा, शिक्षण, शिक्षक और शिक्षा का व्यवसाय सभी सवालों के घेरे में आते हैं । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लेख है कि हम शिक्षक हैं हमारा काम है पाठ पढ़ाना। जरूरत पड़ने पर राजा को भी पढ़ायेंगे। हमारा एक ही उद्देश्य है कि भारत की एकता, प्रगति और अखण्डता के लिये जो भी जरूरी होगा हम करेंगे। वर्तमान शिक्षा माफिया, सत्ता माफिया, मीडिया माफ़िया एवं धर्म माफ़िया का सारा समीकरण भारत के परम्परागत वर्ण माफ़िया के द्वारा संचालित है। जगदेव प्रसाद के पास इसका अचूक इलाज था कि ‘चपरासी हो या राष्ट्रपति की संतान सबकी शिक्षा एक समान।’
भारत में महिलाओं की स्थिति स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी संतोषजनक नहीं हो पायी है। मध्यवर्गीय कस्बाई और महानगरीय समाज में स्त्रियों को एक हद तक आर्थिक आजादी तो हासिल हुई है किन्तु सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में हालात ठीक नहीं हैं। इनके बरक्स आदिवासी, किसान एवं दलित जो आमतौर पर ग्रामीण और वन क्षेत्रों से संबंधित हैं वहां पर महिलाओं की स्थिति बेहतर है। उत्तर भारत की इस मानसिकता को जगदेव प्रसाद ने काफ़ी पहले ही समझ लिया था तभी उन्होंने कहा था कि ‘जिन घरों की बहू-बेटियाँ (स्त्रियाँ) खेत-खलिहानों में काम नहीं करतीं, वे न तो कम्युनिस्ट हो सकते हैं और न ही समाजवादी।’
स्वतंत्र भारत में ऐसे राजनेता बहुत कम हुए हैं जिनकी समझ जगदेव प्रसाद की तरह स्पष्टवादी हों। जगदेव बाबू का मानना था कि भारत का समाज साफ़तौर पर दो तबकों मे बंटा है: शोषक एवं शोषित। शोषक हैं पूंजीपति, सामंती दबंग और ऊँची जाति के लोग और शोषितों में किसान, असंगठित एवं संगठित क्षेत्र के मजदूर, दलित और मुसलमान आदि शामिल हैं। 31 अक्तूबर 1969 को जमशेदपुर में उन्होंने सरदार पटेल के बारे में कहा था कि सरदार पटेल शोषित समाज के बिल्कुल साधारण परिवार में पैदा हुए थे इसलिए विशाल शोषित समाज को उन पर गर्व है। 19 जनवरी 1970 को लिखे एक निबंध में उन्होंने कहा कि जनसंघ (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राजनीतिक मुखौटा और अभी की भरतीय जनता पार्टी) की नजर में भारत की सबसे बड़ी समस्या मुसलमान हैं और जनसंघ इसी को इस देश का वर्ग संघर्ष मानता है। यह सत्ता में बने रहने की कोशिशों का एक हिस्सा भर है।
जगदेव प्रसाद ने सामाजिक न्याय को परिभाषित करते हुए कहा था कि ‘दस प्रतिशत शोषकों के जुल्म से छुटकारा दिलाकर नब्बे प्रतिशत शोषितों को नौकरशाही और जमीनी दौलत पर अधिकार दिलाना ही सामाजिक न्याय है।’ भारत में नस्लीय श्रेष्टता का प्रदर्शन हमेशा ही अपने परिणामों में नुकसानदायक होता है। कितनी अजीबोगरीब बिडम्बना है कि किसी परिवार विशेष में पैदा हो जाने मात्र से ही यहाँ इंसान की पहचान निश्चित कर दी जाती है। विश्वविद्यालय, जहाँ से इससे छुटकारा पाने की तकनीक और शोध करने की उम्मीद की जाती है, भयंकर नस्लवाद के वीभत्स अखाड़े बने हुए हैं। इस बीमारी से निपटने की सटीक दवा हमें अभी तक के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक तथागत बुद्ध के पास मिल सकती है। यह सवाल महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि क्या हमारी वर्तमान शिक्षा एक बेहतर नागरिक का निर्माण कर रही है? अथवा परम्परागत पिछड़ेपन को ही पोषित-पल्लवित कर रही है। इस मामले में जगदेव प्रसाद ने देश की आम जनता से आह्वान किया कि ‘पढ़ो-लिखो, भैंस पालो, अखाड़ा खोदो और राजनीति करो।’
अमरीकी अर्थशास्त्री एफ. टॉमसन के साथ 31 जुलाई 1970 को दिये साक्षात्कार में जगदेव बाबू ने कहा था कि ‘समन्वय से शोषक को फायदा है और संघर्ष से शोषित को।…जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी में फर्क यह है कि जनसंघ के नेता कम अमीर होते हुए भी अमीरों की हिमायत करते हैं और कम्युनिस्ट नेता अमीर होते हुए भी गरीबों का पक्ष लेते हैं। इसलिये कम्युनिस्ट पार्टी यह रूप बड़ा ही मायावी और गरीबों के लिए खतरनाक है।’ हिंदुत्व के गाय, ब्राम्हण और अपराधी राष्ट्रवाद के विकल्प में नारे और विचार गढ़ने में माहिर जगदेव प्रसाद ने किसान और आदिवासी समाज के प्रतीक भैस को अपना केंद्र बनाया और कहा कि ‘सदा भैंसिया दाहिने, हाथ में लीजै लट्ठ। पाँच देव रक्षा करें, दूध दही घी मट्ठ।’
बिहार के लेनिन कहे जाने पर परम्परागत और विफल सत्ताधारियों द्वारा उपहास किये जाने पर मशहूर भाषा वैज्ञानिक और इतिहास के अध्येता राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने लिखा है कि यदि मदन मोहन मालवीय को महामना कहे जाने पर ‘देसवादियों’ को गर्व है तो बिहार की शोषित नब्बे फीसदी जनता को अपने ‘बिहार लेनिन’ पर गर्व है। इसी उपाधि का प्रयोग बीबीसी लन्दन ने जगदेव बाबू की नृशंस हत्या होने के बाद अपने प्रसारण में किया था जैसे जोतिबा फुले को भारत की जनता द्वारा दी गयी उपाधि महात्मा थी। यह ‘महात्मा’ की उपाधि किसी रविन्द्र नाथ टैगोर की गाँधी को कटोरे में दी गयी भीख नहीं है जो गुरुदक्षिणा के रूप में ‘गुरु’ की उपाधि धारण करते हैं।
जगदेव बाबू भारतीय चिंतकों की उस कतार से सम्बंधित थे जो सांस्कृतिक बदलाव के लिये जीवनपर्यंत लड़ते रहे। संस्कृति और सत्ता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भारत, पाकिस्तान, अमेरिका और अफ्रीका में एक समानता यह है कि इन स्थानों पर मूल निवासियों को शोषण और भयंकर अलगाव का सामना करना पड़ रहा है। इसका हल समता, ममता, अपनत्व तथा इंसाफ़ पसंदगी के साथ ही अपने से अलग एवं कई बार विपरीत विचार रखने वाले को भी इन्सान होने का सम्मान देकर ही हासिल हो सकता है।
जगदेव बाबू एक जन्मजात क्रन्तिकारी थे, उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में अपना नेतृत्व दिया, उन्होंने ब्राह्मणवाद नामक आक्टोपस का सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक तरीके से प्रतिकार किया। भ्रष्ट तथा मनुवादी सरकार ने साजिश के तहत उनकी हत्या भले ही करवा दी हो लेकिन उनका वैचारिक तथा दार्शनिक विचारपुन्ज आज भी हमारे लिए प्रेरणादायी है।